भोपाल में उद्घोष - राष्ट्र और बहुसंख्यक समाज के खिलाफ एलान-ए-जंग तो नहीं?

Jitendra Kumar Sinha
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देश में जब भी संकट आता है तो बम धमाके हों, दंगे हों, सीमा पर गोलीबारी हो या आतंकी हमले, सबसे पहले जिस वर्ग की आवाज बुलंद होनी चाहिए, वही अचानक से जैसे लकवाग्रस्त हो जाता है। ये वही लोग हैं जो “गंगा-जमुनी तहजीब”, “हिन्दी-उर्दू सहोदर”, “धर्मनिरपेक्षता”, “विश्वबंधुत्व” और “मोहब्बत की राजनीति” जैसे शब्दों की तिजोरी को रोज भरते हैं, फिर उसी को बेचकर अपनी विचारधारात्मक दुकान चलाते हैं।

लेकिन भोपाल में जो हुआ, जिसको उद्घोष नहीं बल्कि राष्ट्र और बहुसंख्यक समाज के खिलाफ एक खुला एलान-ए-जंग कह सकते हैं। उसने इस पूरी जमात के मुखौटे को एक झटके में उतार दिया है। इनकी चुप्पी किसी दुर्घटना का परिणाम नहीं है। यह चुप्पी रणनीतिक, पूर्व-नियोजित, और राजनीतिक निवेश से उपजी चुप्पी लगती है और इस चुप्पी की सबसे बड़ी वजह है, बिहार चुनाव परिणामों में दिखी बहुसंख्यक वोटों की एकजुटता। एक ऐसा सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन है जिसे कथित सेकुलरिज्म का कुनबा पचा नहीं पा रहा है।

भारत की सभ्यता सह-अस्तित्व पर खड़ी है। यह सच है और शाश्वत है। लेकिन प्रश्न यह है कि सह-अस्तित्व को एकतरफा जिम्मेदार बनाने का अधिकार किसने दे दिया? गंगा-जमुना का अर्थ था संस्कृति का समन्वय, भाषाओं का आदान-प्रदान, मेल-मिलाप का वातावरण। लेकिन पिछले तीन दशकों में इसे एक राजनीतिक हथियार बना दिया गया है, जब भी बहुसंख्यक समाज के खिलाफ विष उगला गया, इसे तहजीब कहा गया। जब भी आतंकी घटनाओं पर सवाल उठा, इसे धार्मिक भावनाओं पर हमला बताया गया। जब भी सीमा पार की गतिविधियों के खिलाफ आवाज उठी, इसे “नफरत की राजनीति” कहा गया। तहजीब का मतलब नैतिकता, सामंजस्य और सम्मान है  ना कि चुनिंदा मौकों पर जागने वाली अंतरात्मा।

हिन्दी और उर्दू सहोदर हों यह बात साहित्य ने कही है, इतिहास ने स्वीकारा है। लेकिन आज “सहोदर” शब्द सिर्फ तब याद आता है जब किसी राजनीतिक मकसद के लिए भाषा को हथियार की तरह इस्तेमाल करना हो। जब आतंकवाद के खिलाफ कठोर कदम की बात करो, तो उर्दू शायरी के हवाले देने वाले लोग कहीं गायब हो जाते हैं।

देश में कहीं बम फटता है, किसी शहर में निर्दोष नागरिक मरते हैं, किसी जवान का शव तिरंगे में लिपटता है तब एक वर्ग हमेशा एक ही वाक्य बोलता है “हम दुख प्रकट करते हैं… हम शांति की अपील करते हैं…”ये वही लोग हैं जिन्हें पाकिस्तानी संगीतकार बड़ा कलाकार दिखता है। पाकिस्तानी क्रिकेट टीम रोमांच का साधन लगती है और पाकिस्तानी सरकार “पड़ोसी” जैसी मानवीय उपमा से सुशोभित दिखती है। मानो सीमा के उस पार से आने वाली गोलियाँ और बम भी किसी तहजीब के दूत हों।

भारत वर्षों से शांति चाहता है लेकिन शांति एकतरफा नहीं होती, ना ही दोस्ती बमों पर टिकी रह सकती है। जो वर्ग हर आतंकी हमले के बाद “कलाकारों को अलग रखें, राजनीति को अलग रखें” कहता है, वही वर्ग वोटों के समय धर्म, जाति, अल्पसंख्यक अधिकार, बहुसंख्यक खतरा सब मिलाकर राजनीति करता है। क्या यह दोहरा चरित्र नहीं है?

भोपाल में जो नारे लगे, जो बातें बोली गईं, जो मंचीय संकेत दिए गए वह सिर्फ “उत्साह” नहीं थे। वह बहुसंख्यक के खिलाफ चुनौती थे। यह वह माहौल था जहां राष्ट्रवाद को चुनौती दी गई। भारत की सम्प्रभुता पर सवाल उठाया गया। बहुसंख्यक समाज को “राजनीतिक बाधा” की तरह पेश किया गया और अल्पसंख्यक राजनीति को “सत्ता बदलने का तरीका” बताया गया। यह एक तरह से एलान-ए-जंग था,  विचारधारा की जंग, जनसंख्या की जंग, वोटों के ध्रुवीकरण की जंग और सबसे बढ़कर भारत की आत्मा पर कब्जा करने की जंग।

जो लोग आज मौन हैं, वे भोपाल की घटना से अनजान नहीं हैं। बल्कि वे इस “मौन समर्थन” से ही वातावरण बनाते हैं। जब किसी शहर में राष्ट्रविरोधी संकेत मिलता है तो अगर, उसके खिलाफ व्यापक राजनीतिक आवाज नहीं उठता है, तो यह संकेत देश के भविष्य के लिए खतरनाक हो सकता है।

बिहार चुनाव में जो हुआ, वह एक सामाजिक भूचाल था। यह पहला ऐसा चुनाव था जिसमें जाति समीकरण ध्वस्त हो गया, वर्ग आधारित राजनीति को आघात लगा, अल्पसंख्यकवादी वोट बैंक की रणनीति विफल हुई और बहुसंख्यक समाज ने पहली बार एकजुट वोट किया। उनके लिए असली समस्या यह नहीं कि चुनाव हार गए। असली समस्या यह है कि बहुसंख्यक समाज को अब “अपनी ताकत” का एहसास होने लगा है। यह एहसास आने का मतलब है वोट बैंक की राजनीति खत्म। धार्मिक ध्रुवीकरण बेअसर। जातिगत समीकरण अप्रभावी। परिवारवादी पार्टियों की जमीन खिसकना और मीडिया-चालित नैरेटिव की शक्ति कमजोर होना।

समाज ने समझा कि “जातियों की लड़ाई, केवल कुछ दलों की कमाई है।” जब समुदायों ने यह पाया कि जाति की राजनीति ने किसी का विकास नहीं किया, अव्यवस्था और भ्रष्टाचार बराबर बढ़े, फूट डालकर वोट लेने वाले नेता ही अमीर हुए, गरीब तो गरीब ही रहा, तब जाति की दीवारें गिरना शुरू हुईं।

यह बदलाव 2014 से शुरू हुआ था,  2019 में मजबूत हुआ,  2024 के बाद और तेज हो गया और बिहार चुनाव ने इसे स्पष्ट सिद्ध कर दिया। बहुसंख्यक समाज अब पूछता है क्या राष्ट्रवाद अपराध है? क्या आतंकवाद के खिलाफ बोलना सांप्रदायिकता है? क्या हिन्दू होने पर अपराधबोध होना चाहिए? क्या बहुसंख्यक हितों की बात करना असंवैधानिक है? इन सवालों के उत्तर पहले डर कर दिए जाते थे, आज स्पष्ट, ठोस और दृढ़ दिए जा रहे हैं। 

वही राजनीतिक गुट जो बहुसंख्यक को बांटकर सत्ता चलाता रहा, अल्पसंख्यकों में डर बोकर वोट पाता रहा और अपने भ्रष्ट शासन को “सहिष्णुता” का लेबल चिपकाकर बचाता रहा। बिहार चुनाव ने इसकी स्थिति ऐसी कर दी है कि अब न धर्म आधारित राजनीति चल रही है, न डर आधारित नैरेटिव। जबकि बहुसंख्यक समाज अब सिर्फ दर्शक नहीं रहा, बल्कि निर्णयकर्ता बन चुका है। 

भोपाल में जो उग्र उद्घोष सुनाई दिया वह एक तरह से टेस्टिंग बैलून था। धार्मिक पहचान को राजनीतिक हथियार बनाएंगे। “बहुसंख्यक खतरे” का भ्रम फैलाएंगे। वोटों का ध्रुवीकरण करने की कोशिश करेंगे। सोशल मीडिया पर गलत नैरेटिव बढ़ाएंगे। हिन्दू समाज को बँटा दिखाने की कोशिश करेंगे। भारत की सुरक्षा एजेंसियों को कठघरे में रखेंग और पाकिस्तान की गतिविधियों पर सवाल उठाने वालों को बदनाम करेंगे। क्योंकि करोड़ों लोगों की जागरूकता इनके राजनीतिक अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगा रही है।

भारत की मजबूती “सभी धर्मों का सम्मान” और  “राष्ट्रहित सर्वोपरि”, इन दोनों के संतुलन में समान अधिकार, समान कर्तव्य, समान कानून, समान प्रतिक्रिया और समान जिम्मेदारी है। क्योंकि यदि आतंकी हमले को लेकर समाज विभाजित रहेगा, तो दुश्मन मजबूत होगा। यदि राजनीतिक विचारधारा के आधार पर आतंकवाद को “जस्टिफाई” किया जाता रहेगा, तो भारत कमजोर होगा। सेकुलरिज्म का मतलब बहुसंख्यक अपराधबोध नहीं है। भारत कोई धर्मशाला नहीं है बल्कि एक राष्ट्र है। स्वाभिमान राष्ट्रवाद का मूल तत्व है। अपनी संस्कृति पर गर्व करना संकीर्णता नहीं है। धर्म और राजनीति के नाम पर बाँटने वालों को पहचानना जरूरी है।



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